बुधवार, 21 मई 2008

तुम बिन

पतझङ के दिन कैसे बिते, मत पुछो।
तुम बिन दिन कैसे बिते, मत पुछो ।

जब आते वो पल यादों मे,
हर पल जब कटते थे सालों में ।

दिन रात एक सा लगता था,
दुःख-सुख एक सा लगता था ।

पतझङ के दिन कैसे बिते, मत पुछो।
तुम बिन दिन कैसे बिते, मत पुछो ।

पल पल का कटना दुश्कर होता था,
हर पल मे जीना कष्टकर होता था ।

लेकिन जीते थे बस एक आश में,
आयेगी फिर से बसंत जीवन में।

होंगी जब फिर, तुम मेरे बाहों में,
जीने का बोझ फिर हल्का होगा,
तेरे प्यार में दिल उमङा होगा ।

बसंत लौट फिर से आयेगी,
प्यासे मन को तृप्त कर जायेगी ।

पतझङ के दिन कैसे बिते, मत पुछो।
तुम बिन दिन कैसे बिते, मत पुछो ।

4 comments:

mamta ने कहा…

अच्छी रचना ।

बेनामी ने कहा…

badhiyan rachna

Udan Tashtari ने कहा…

बढ़िया है, लिखते रहिये.

श्रद्धा जैन ने कहा…

bahut badiya magar fir ye kalam shaant kyu hai ?